बातों का अहसास मत बना देना मुझे किसी का खास मत बना देना बस इतना रहम करना मेरे मालिक किसी का टाइम पास मत बना देना। जान कह कर जो जान देते थे ओ चले गये अनजान बन कर फितरत किसकी क्या है क्या पता बारी आयी तो चले गये ज्ञान देकर। अब होंसला दे खुदा की निकाल सकूं खुद को भी किसी तरह संभाल सकूं आसां नहीं रूह का जिस्म से जुदा होना बगैर उसके जीने की आदत डाल सकूं। हमने ओ भयावह मंजर भी देखा है किसी को टूटते हुये अंदर से देखा है अब किसी के लिये क्या रोना धोना हमने तो अब खुद में सिकंदर देखा है।
इस क़दर भी न सताया करो।
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पास आकर न दूर जाया करो
इस क़दर भी न सताया करो।
ख़्वाबों के दरमियां फासले हैं
न ख्वाबों से तुम घबराया करो।
जिंदगी की असली कमाई तुम हो
मेरी कमाई से न मुकर जाया करो।
दिल दे दिये हो तो भरोसा रख्खो
हर जगह न हाथ आजमाया करो।
गम-ए-जिंदगी जीना तो आसां नहीं
मग़र थोड़ी थोड़ी तो सुलझाया करो
सभी को आईने दिखाना जरूरी नहीं
गिरेबां में अपने भी झांक जाया करो।
गर हो गया हूँ रुस्वा तो थोड़ा ध्यान दो
कभी कभार तो हमें भी मनाया करो।
बेसक नहायी हो तुम नीली झील में
वक्त रहते केशुओं को सुखाया करो।
सवांरती फिरती हो जिन ज़ुल्फों को
उन जुल्फों में न हमें उलझाया करो।
ये इबादत के दिन हैं तो सुनो दरिया
खुदा की रहमतों में मुस्कुराया करो।
अपनी आदतों से क्यूं बाज नहीं आती
मु आंख तुम इतना न मटकाया करो।
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किसी का टाइम पास मत बना देना।
बातों का अहसास मत बना देना मुझे किसी का खास मत बना देना बस इतना रहम करना मेरे मालिक किसी का टाइम पास मत बना देना। जान कह कर जो जान देते थे ओ चले गये अनजान बन कर फितरत किसकी क्या है क्या पता बारी आयी तो चले गये ज्ञान देकर। अब होंसला दे खुदा की निकाल सकूं खुद को भी किसी तरह संभाल सकूं आसां नहीं रूह का जिस्म से जुदा होना बगैर उसके जीने की आदत डाल सकूं। हमने ओ भयावह मंजर भी देखा है किसी को टूटते हुये अंदर से देखा है अब किसी के लिये क्या रोना धोना हमने तो अब खुद में सिकंदर देखा है।
तेरे बिन जिंदगी बसर कैसे हो।
जो अमृत है ओ ज़हर कैसे हो तेरे बिन जिंदगी बसर कैसे हो। ख़्वाबों के अपने सलीक़े अलग हैं उजालों में इनका असर कैसे हो। इंसानियत प्रकृति की गोद में हो वहां कुदरत का कहर कैसे हो। घरों की पहचान बाप के नाम से हो वह जगह कोई शहर कैसे हो। पीने के योग्य भी न रह गया हो वह जल स्रोत कोई नहर कैसे हो। खुदगर्ज़ी की बांध से जो बंध गया हो उस सागर में फिर कोई लहर कैसे हो। ढल गया हो दिन हवस की दौड़ में फिर उसमें सांझ या दो पहर कैसे हो।
बस रोने को ही जी चाहता है।
बस रोने को ही जी चाहता है जाने क्या खोने को जी चाहता है। बचा नही कुछ भी अब मेरा जाने किसका होने को जी चाहता है। लिपट कर रोती है ये रात भी रात भर जाने किसके संग सोने को जी चाहता है। दौलत खूब कमाया उदासी और तन्हाई भी जाने किस खजाने को जी चाहता है। इर्ष्या द्वेष कलह फ़सल सारी तैयार है जाने कौन सा बीज बोने को जी चाहता है। ओढ़ ली कफ़न खुद से रूबरू होकर जाने कौन सी चादर ओढ़ने को जी चाहता है।
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