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Showing posts from June, 2019

किसी का टाइम पास मत बना देना।

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बातों का अहसास मत बना देना मुझे किसी का खास मत बना देना बस इतना रहम करना मेरे मालिक  किसी का टाइम पास मत बना देना। जान कह कर जो जान देते थे ओ चले गये अनजान बन कर फितरत किसकी क्या है क्या पता बारी आयी तो चले गये ज्ञान देकर। अब होंसला दे खुदा की निकाल सकूं खुद को भी किसी तरह संभाल सकूं आसां नहीं रूह का जिस्म से जुदा होना बगैर उसके जीने की आदत डाल सकूं। हमने ओ भयावह मंजर भी देखा है किसी को टूटते हुये अंदर से देखा है अब किसी के लिये क्या रोना धोना हमने तो अब खुद में सिकंदर देखा है।  

आखिर दूरियां इतनी क्यूं बरकरार हैं।

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आखिर दूरियां इतनी क्यूं बरकरार हैं दिन की ख़ुशी है या रातें बेबसी का शिकार हैं। आज ये 'दरिया' दिवाना स क्यूं लगता है नए गम का आगाज़ है या चढ़ा प्रेम का बुखार है। खोया खोया से क्यूं आज़ ये चाँद है लुका-छिपी बादलों से है या दूजा चाँद सर पे सवार है।

गज़ल आज़ पलकों से पर्दा हटाया हमने।

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गज़ल दुश्मनों को भी दोस्त बनाया हमने आज़ पलकों से पर्दा हटाया हमने। गिर गए हैं जिन नज़रों में आज़ कभी नज़रों पे उनको बिठाया हमने। वक्त के नशे में चूर आईने चिढ़ाते हैं खुद को दर्पण से दूर भगाया हमने। उन पर जां लुटाते रह गए हम जिन्हें खुद से बहुत दूर पाया हमने। दिल में किसी को जब भी बसाया ज़ख्मों के सिवा न कुछ पाया हमने। लोग कहते हैं तू क़िस्मत में नहीं मेरी हर मोड़ पर क्यूं तुझी को पाया हमने। उदास दिल से बज़्म को जब भी निहारा खाली दिल सा, सारा जहां पाया हमने। रूठी चांदनी से क्या शिकवा करें जब झूंठा चांद ही दिल में बसाया हमने।
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हंसी भी छीन ली ख़ुशी भी छीन ली सातिर थी जिंदगी इतनी चेहरे से लसी भी छीन ली।। तस्वीर भी छीन ली तक़दीर भी छीन ली ज़ालिम थी जिंदगी अपनी हाथों से लकीर भी छीन ली।। रामानुज 'दरिया'

मुक़म्मल जिंदगी है जितनी।।

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क्या रह गयी थी कुछ चालें ये गम मेरे साथ चलने की। जो कहर बन के बरसी हो तन की सांसें झटकने की। फ़िराक  में   रहती   है   तू मेरा हर ख्वाब चटकने की। बचा  ही  क्या   है  मेरे पास सिवा दिमाग के सटकने की। पूरी कर ले तू हर ज़िद अपनी मुक्कमल  जिंदगी है जितनी। क्या  पता  आ  जाये  सूरज कब  बादल   की  चपेट  में। और रोशनी भी चढ़ जाये अंधेरों    की    भेंट    में।

आख़िर बात क्या है पापा हमें कुछ बताते क्यूं नहीं हो। Happy Father's Day

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हरदम -हरदम कहते हो पर  आते कभी नहीं हो आख़िर बात क्या है पापा हमें कुछ बताते क्यूं नहीं हो। जब देखो तब रोती रहती हैं बैठ कर कहीं किसी कोने में इतना  क्यूं  रूठे  हो  पापा चुप मम्मी को कराते क्यूं नहीं हो। डांटती  भी   नहीं   है गलती पर मारती भी नहीं है अब  आप  चले आओ पापा मम्मी पास सुलाती भी नहीं हैं। बाबू का बैग फट गया है मेरी चप्पल भी टूट गयी है अब हम स्कूल जाते नहीं पापा इस हाल से उबारते क्यूं नहीं हो।

उसके लिखे जज़्बात को।।

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कितना सम्भाल कर रखा है उसके लिखे जज़्बात को काश की समझ पाती ओ खामोश लबों के हालात को। इक - इक शब्द उसके आज भी दिल पर राज़ करते हैं काश समझा पाता मैं ख़ुद को उससे की हर मुलाकात को। महसूस किया है दर्द के चुभन को पास आकर दूर जाता है कोई निकाल दिया कब का दिल से अपने निकाल पाता नहीं रगों से ख्यालात को। ओ college का बहाना ओ morning walk पर जाना सब कुछ तो भुला दिया मैंने करोगे क्या, मुझको पाकर तुम भुलाऊँ कैसे उसके सवालात को।
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गर इंशान अपनी किस्मत खुद लिखता कौन जिंदगी में इतनी मुसीबत लिखता।। बताओ, यदि खूबसूरती पर्दे में दिखती फिर ये हुस्न बेपर्दा क्यूं दिखता।। सर्प चंदन को विषैला नहीं कर सकता फिर इक बूंद नीबू से क्यूं दूध फटता।। कड़ी मेहनत ही सफलता की कुंजी है गधा क्यूं जंगल का राजा नहीं बनता।। हर रूप में पूज्नीय जब नारी है कूचे में क्यूं घात लगाये शिकारी है।। जब भ्र्ष्टाचार पसंद नहीं होता फिर क्यूं भ्र्ष्टाचार बंद नहीं होता।। जब मुस्कान चेहरे की रौनक बढ़ती है फिर क्यूं उदासी सूरत पर चढ़ आती है।। जब रोशनी जग का अंधेरा मिटाती है फिर हर बार क्यूं ये काली रात आती है।।                            रामानुज दरिया

चाहत थी कि रोंक लूँ उसे।।

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चाहत थी कि रोंक लूँ उसे पर तेवर ने झुकने न दिया। जाना तो चाहती न थी पर अहम ने रुकने न दिया। एक ही दौलत थी मुस्कुराने की बेबसी ने जिसे चुनने न दिया। झूठी तारीफें तो खूब सुनी सच को कानों ने सुनने न दिया। कसर न रही तुझे भुलाने में पर यादों ने मुझे उबरने न दिया। तलाश थी जिस मंजिल की मुझे उधर से किस्मत ने गुजरने न दिया। हौंसले जब भी फ़ौलादी बने अपनों ने मैदान में उतरने न दिया । बैठती तो थी आईने के सामने बिरह ने कभी संवरने न दिया।

अपनों की कद्र नहीं ग़ालिब तेरी पनाह में।।

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अपनों की कद्र नहीं ग़ालिब तेरी पनाह में सज़ा उसकी मिली,न थे शामिल जिस गुनाह में। ज़ख्म हरा था हरा ही रह गया मरहम दिल न मिला आकर तेरी दरगाह में। पैर फिसलता नहीं ख़ुदा तेरी उस दुनिया में सुकून मिलता है, बस आकर कब्रगाह में। मुक्कमल माफ़ी ही होती तेरी अदालत में गर रिस्वत का ख्याल ,न आता गवाह में। न काम की किच-किच न बॉस का चिर्र-पों बनकर राजा रहा करते थे चरागाह में। जब वक्त की तपिस हो , ज़रा ध्यान से सुनो 'दरिया' अपने फ़ैसले बदल दो उसकी निगाह में।।

जिंदगी।।

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मेरे साथ जिंदगी ने कई खेल खेले हैं कहीं समय तो कहीं बेबसी के दर्द झेले हैं नूर ही आंखों के नासूर हो गये हमने बदलते रिश्तों के दंश झेले हैं।। हम बेगुनाही का। सुबूत देते रहे और ओ गुनहगार सिद्ध करते रहे सबकी निगाहों में गिरा कर हमें अपनी कुशल वकालत का परिचय देते रहे।।
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आज पूँछ ही लिया उसने कौन हो तुम पकड़ कर उंगलियां चला था जिसकी । छोड़ दी जिसके लिए रोजी- रोटी अपनी ओ कहते हैं आज सुनूं मैं किस- किसकी। चूर  थे  जिसको  उठाने  में  हम  कभी किया चूर  उसी  ने अरमानों की  कश्ती। रिस्क जिंदगी की लेकर साथ जिसके चले थे वही साथ बैठना मेरे आज समझते हैं रिस्की। 'दरिया' कहे भी क्या दुनिया के दस्तूर की चढ़ा पेंड़ पर जड़े काट लेते हैं  जिसकी।